Tuesday, September 20, 2011

गुजरात नरसंहार: बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी


उच्चतम न्यायालय ने २००२ के गुजरात में हुए नरसंहार के लिए मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जिम्मेदार हैं कि नहीं इस बात की जांच अहमदाबाद के मेजिस्ट्रेट की अदालत को सुपुर्द कर दी है. उच्चतम न्यायालय ने यह भी निर्देश दिए कि इस जांच में उसके द्वारा नियुक्त स्पेशियल इन्वेस्टिगेशन टीम एवं एमिकस क्यूरी (वरिष्ट अधिवक्ता) की रपट को ध्यान में रखा जाए. साथ ही नरसंहार में जिन लोगों ने अपने परिजनों को खोया है उनके द्वारा अतिरिक्त गवाही एवं सबूतों को भी सुना और देखा जाए. 

भारतीय जनता पार्टी ने उच्चतम न्यायालय के इस निर्देश को मोदी को निर्दोष घोषित किए जाना बतलाया है, जो कि अर्ध सत्य ही नहीं बल्कि सरासर झूठ है. उच्चतम न्यायालय ने मोदी के खिलाफ़ लगाए गए आरोपों का कोई खंडन नहीं किया है. बल्कि, २००२ में हुए दंगों में उनकी भूमिका की मेजिस्ट्रेट की अदालत में जांच करने के आदेश ही दिए हैं. अब यह मामला निचली अदालत में चलेगा, और शायद यह एक लंबी प्रक्रिया होगी. गौर तलब है कि उच्चतम न्यायालय में किसी भी फ़ौजदारी केस की सुनवाई नहीं होती, वहां सिर्फ़ निचली अदालतों के फ़ैसलों पर सुनवाई होती है और उन पर अंतिम फ़ैसला सुनाया जाता है.

लेकिन इस तथ्य को छुपा कर, भाजपा नेता इस भ्रामक प्रचार में जुट गए हैं कि उच्च अदालत ने मोदी को तमाम आरोपों से बरी कर दिया है और यह कि विपक्ष तथा नागरिक अधिकार संगठन पिछले ११ सालों से मोदी को बदनाम करने की कोशिश में लगे हैं. स्वयं मोदी ने उच्चतम न्यायालय के निर्देश को ’विवादों का अंत’ बतलाया है और अपने खिलाफ़ लगे आरोपों को गुजरात की ६ करोड़ जनता को बदनाम करने की साजिश कहा है. मोदी ने २००२ के नरसंहार को ’एक क्रिया की प्रतिक्रिया’ कहा था, जब कि तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने गोआ के भाजपा अधिवेशन में मोदी सरकार की आलोचना यह कह कर की थी कि मोदी अपना राजधर्म भूल गए हैं.

जो मोदी करण थापर के टीवी चैट शो के बीच से तब भाग खडे हो गए जब उन्हें २००२ के नरसंहार के कारण धूमिल हुई उनकी छवि को सुधार ने लिए सार्वजनिक तौर पर माफ़ी मांगने को कहा गया था, अब उच्चतम न्यायालय के निर्देश के बाद १७ सितम्बर से तीन दिन का उपवास कर रहे हैं इस घोषित उद्देश्य के साथ की गुजरात में सद्भाव का वातावरण बने. अपने दस वर्ष के कार्यकाल में पहली बार मोदी ने जनता के नाम एक खुला पत्र भी लिखा जिसमें उन्होंने कहा कि सर्वोच्च अदालत ने अब तक उठाए सभी विवादों का अंत ला दिया है और इस लिए वे अब समाज में सद्भावना अभियान चलाना चाहते हैं. 

उनकी मुसलमान विरोधी छवि के कारण बिहार के मुख्य मंत्री नितीश कुमार ने मोदी को विधान सभा चुनाव प्रचार से दूर रखा था. राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन के कई घटक दल मोदी के अतिवादी सांप्रदायिक तेवर के कारण उनसे कतराते रहे हैं. दूसरी ओर, भाजपा कई युवा नेता मोदी को भावी प्रधान मंत्री के रूप में प्रचारित कर रहे हैं. अब जब २००२ के नरसंहार में उनकी भूमिका का मामला निचली अदालत में चलाए जाने में एक लंबा समय लगने की संभावना है तब मोदी अपने आप को एक सेक्यूलर राष्ट्रीय नेता के रूप में साबित करना चाह रहे हैं. जब तक उन पर लगाए आरोप साबित या खारिज नहीं होते, साबरमती नदी में बहुत पानी बह चुका होगा और राष्ट्रीय राजनीति भी किसी अनिश्चित मोड़ पर पहुंच चुकी होगी. 

भाजपा के वरिष्ट नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने भी मोदी की राष्ट्रीय राजनीति में संभावित भूमिका के बारे में अटकलों को यह कह कर बढावा दिया कि देश को मोदी जैसे बहु प्रतिभावान एवं प्रभावी नेता की आवश्यकता है. लेकिन गुजरात में मोदी की मौजूदा हालत नाजुक प्रतीत हो रही है. एक ओर जहां उनकी २००२ के नरसंहार में भूमिका को लेकर वरिष्ट पुलिस अधिकारी जैसे संजीव भट्ट, राहुल शर्मा और रजनीश राय ने हलफ़नामा देकर सवालिया निशान खड़े कर रखे हैं, जिसको निचली अदालत अनदेखा नहीं कर सकती, वहीं दूसरी ओर राज्यपाल श्रीमती कमला बेनीवाल द्वारा गुजरात उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश आर ए मेहता की लोकपाल के पद पर की गई नियुक्ती को राज्य सरकार द्वार चुनौती देने से मोदी पेंचीदी परिस्थिती में फ़ंस गए हैं.

लोकपाल के लिए पूर्व न्यायाधीश मेहता के नाम का सुझाव गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने स्वयं दिया था. तदुपरांत, वर्तमान कानून में लोकपाल की नियुक्ती का अधिकार राज्यपाल को ही है, न कि राज्य के मुख्यमंत्री को. लोकपाल का पद पिछले सात साल से खाली पडा था जिसे मोदी सरकार ने अपनी आपत्ती जता कर भरने नहीं दिया था. इस पर उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका के दाखिल करने पर, राज्य सरकार ने एक अध्यादेश जारी करने के प्रयास किए जिसमें लोकपाल की नियुक्ती का अधिकार मुख्यमंत्री को दिए जाने का प्रावधान था. इस अध्यादेश पर राज्यपाल ने हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया और ततकाल न्यायाधीश मेहता की नियुक्ती की घोषणा कर दी.

राज्यपाल द्वारा मेहता की नियुक्ति की घोषणा के दूसरे ही दिन मोदी सरकार ने लोकपाल कार्यालय पर ताला लगा दिया और उनकी नियुक्ती को उच्च न्यायालय में चुनौती दे दी. उच्च न्यायालय ने इस मामले में राज्यपाल को प्रतिवादी बनाने से इनकार कर दिया और मोदी सरकार को एक नोटिस भेजी कि वह इस बात की सफ़ाई दे कि कैसे मोदी द्वारा प्रधान मंत्री को लिखा गया पत्र अखबारों तक पहुंच गया जिसमें मोदी ने न्यायाधीश मेहता के खिलाफ़ सरकार के प्रति द्वेषपूर्ण भावना रखने का आरोप लगाया गया था. 

इस से पूर्व राज्य कोंग्रेस के एक प्रतिनिधी दल ने राष्ट्रपति को मिल कर मोदी सरकार के खिलाफ़ एक प्रतिवेदन दिया गया था जिसमें गंभीर भ्रष्टाचार के आरोप थे. कोंग्रेस का आरोप है कि मोदी सरकार ने कई औद्योगिक घरानों को करोडों रुपए की जमीन माटी के मोल बेच दी है जिसमे सरकार को एक लाख करोड रुपए से अधिक का नुकसान पहुंचा है.

इन आरोपों की जांच लोकपाल न कर सके इस उद्देश्य से मोदी सरकार ने एक जांच आयोग की घोषणा कर दी. जब कोई जांच आयोग किसी मामले में जांच कर रहा हो उस परिस्थिती में लोकपाल उस पर कोई कार्रवाही नहीं कर सकता ऐसा लोकपाल कानून में प्रावधान है. 

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