काशी स्टेशन के पास दो मोहल्ले हैं. राजघाट और प्रह्लादघाट. आठ साल से अठ्ठाईस साल की उम्र तक मैं यहीं पला-बढा. खेला-कूदा, गंगा और वरुणा नदी में तैरा. हम उम्र दोस्तों के साथ मार-पीट भी की. वरुणा और गंगा के संगम पर बसे राजघाट बेसन्ट स्कूल में दूसरे दर्जे से ग्यारहवीं तक पढ़ा.
प्रह्लादघाट के कई पंडा-पुरोहित मेरे दोस्त थे. उन्हें बचपन से ही जजमानी संभालना सिखाया जाता था. जिनके कोई खानदानी पंडे-पुरोहित नहीं होते थे ऐसे काशी यात्रियों को ट्रेन से उतरते ही जजमान बनाने की होड़ लगती थी. क्रिया-कर्म के सभी चोंचले उन्हें जन्म घुट्टी के साथ ही पिलाई गई थी.
मुन्नु गुरु, रामा गुरु, चुनमुन गुरु, ढुलमुल गुरु - सब के सब गुरु. तीसरी चौथी तक के पढे. अखबार पढ़ भर लेते थे, वेद पुराण से दूर का भी नाता नहीं. हां, कर्म-कान्ड से संबंधित श्लोक और मंत्र, अगड़म-बगड़म ऐसे बोलते थे जैसे इनका अर्थ और महत्व सिर्फ़ उन्हीं को पता है. जजमान चुंधिया जाते थे और खुशी-खुशी अपनी गांठ ढीली कर देते थे.
पंडों के बीच जजमानी के इलाके बंटे हुए थे. किसी के हिस्से सरगूजा तो किसी के भाग में उड़ीसा. जजमानी की ’जमीनदारी’ को लेकर आपस में कोई झगड़ा नहीं. साठ के दशक तक प्रह्लादघाट के सभी पंडे दशास्वमेध घाट और विश्वनाथ गली के पंडों को जजमान से मिले दान का चवन्नी हिस्सा दिया करते थे. पंडों के राजा हुआ करते थे अंजनीनंदन मिश्र.
प्रह्लादघाट के पंडों ने अपनी यूनियन बना ली और मेरे स्कूल के सहपाठी निशिराज मिश्र के पिता नेता चुने गए. एक दिन सारे पंडों ने फैसला किया कि कोई भी अब दशास्वमेध घाट और विश्वनाथ गली के पंडों को चवन्नी हिस्सा नहीं देगा.
इस बगावत को दबाने का जिम्मा अंजनीनंदन मिश्र को सौंपा गया. एक दिन प्रह्लादघाट की मुख्य सड़क पर एक पान की दुकान के सामने निशिराज मिश्र के पिता की गोली मार कर हत्या कर दी गई. दिन दहाड़े की गई हत्या के बावजूद प्रह्लादघाट के पंडे डरे नहीं, झुके नहीं. समयान्तर में जजमानी से मिलने वाली आमदनी धीरे-धीरे कम होती गई. पुरोहित परिवारों की नई पीढी स्कूल कालेज जाने लगी, नौकरी पेशा करने लगी.
मेरे हम उम्र पंडे, बचपन के साथी, कई तो स्वर्ग सिधार गए और बाकी अपनी-अपनी गद्दी पर चिलम खींच खीच कर समय काट रहे हैं.
काशी की कई कहानियां हैं. फुर्सद और मूड़ बनने पर लिखूंगा.
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