मेरी नानी मालती देवी चौधुरी शेरनी थी. उडीसा के गरीब आदिवासी उन्हें "मां" कहकर बुलाते थे. उन्होंने उडीसा में जन आंदोलन चला कर गुती प्रथा को समाप्त करवाया. गुती प्रथा के तहत गरीब आदिवासी साहूकारों की पीढी दर पीढी गुलामी करने को मजबूर थे. मेरे नाना उडीसा के मुख्यमंत्री थे और नानी आदिवासियों की नेता.
एक बार आंदोलनकारी आदिवासी हजारों की संख्या में तीर-क्मान ले कर जंगल में निकल पड़े. सामने बन्दूकों से लैस पुलिस उन्हें रोकने आई. वातावरण तंग हो गया. कभी भी तीर और गोली चल सकती थी. नानी उसी इलाके में गांव-गांव पैदल घूम रही थी. उन्हें खबर लगी तो घटना स्थल पर पहुंच गई. आदिवासियों और पुलिस के बीच दीवार बन के खड़ी हो गई. आदिवासियों की मां को, जो मुख्यमंत्री की पत्नी भी थी, आदिवासियों के बीच से निकल कर आगे बढते देख, पुलिस सकते में आ गयी और वापस लौट गई.
भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान उन्हें जेल हुई. १९४६ में जेल से छूटने के बाद उन्होंने अपने गहने बेच कर अनुगुल में जमीन खरीदी और वहां आदिवासी और दलित बच्चों के लिए आश्रम विद्यालय खोला. बच्चे और शिक्षक खेती और खादी के काम के साथ पढाई करते. वहां से पढे छात्र-छात्राएं आगे चल कर शिक्षक और समाज सेवक बने.
एक बार जब मैं पांचवी या छठवीं कक्षा में पढता था तो गर्मियों की छुट्टी में बनारस से नानी के पास जाने के लिए निकला. कलकत्ता से भुवनेश्वर तत्कालीन मुख्यमंत्री बीजु पटनायक के साथ उनके निजी हवाई जहाज से आया. हवाई यात्रा का मेरा यह पहला अनुभव था. बीजु पटनायक ने, जो खुद पायलट रह चुके थे, मुझे सह पायलट की सीट पर बैठाया और स्वयं पायलट की जगह ले ली और मुझे हवाई जहाज को ऊपर-नीचे, दाएं-बांए कैसे घूमाते हैं यह दिखाया.
भुवनेश्वर पहुंच कर मुझे अपने ड्राइवर के साथ न्यू मार्केट भेजा जहां से मुझे मेरी मन पसंद के दो खिलौने - एक चाबी से चलने वाला बन्दर और दूसरा बैटरी से चलने वाली खिलौने की पिस्तौल जिसमें से आवाज के साथ-साथ रंग बिरंगी रोशनी निकलती थी.
जब मैं नानी के आश्रम अनुगुल पहुंचा तो मेरे खिलौने देख कर वे गुस्से से आग बबूला हो गईं. "इतने रुपये से तो मेरे दो बच्चों के लिए महिने भर का खाना आ सकता है. तुम कैसे इतने मंहंगे खिलौने से खेल सकते हो?"
विरोध में नानी ने एक दिन खाना नहीं खाया. मैं बहुत गुस्सा हुआ और रोया. बाद में मुझे नानी के उस दिन के व्यवहार का मतलब समझ में आया और आदिवासी बच्चों के सामने मैं ने जो खिलौनों का गर्व के साथ प्रदर्शन किया था उस पर भारी शर्म महसूस हुई.
एक बार आंदोलनकारी आदिवासी हजारों की संख्या में तीर-क्मान ले कर जंगल में निकल पड़े. सामने बन्दूकों से लैस पुलिस उन्हें रोकने आई. वातावरण तंग हो गया. कभी भी तीर और गोली चल सकती थी. नानी उसी इलाके में गांव-गांव पैदल घूम रही थी. उन्हें खबर लगी तो घटना स्थल पर पहुंच गई. आदिवासियों और पुलिस के बीच दीवार बन के खड़ी हो गई. आदिवासियों की मां को, जो मुख्यमंत्री की पत्नी भी थी, आदिवासियों के बीच से निकल कर आगे बढते देख, पुलिस सकते में आ गयी और वापस लौट गई.
भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान उन्हें जेल हुई. १९४६ में जेल से छूटने के बाद उन्होंने अपने गहने बेच कर अनुगुल में जमीन खरीदी और वहां आदिवासी और दलित बच्चों के लिए आश्रम विद्यालय खोला. बच्चे और शिक्षक खेती और खादी के काम के साथ पढाई करते. वहां से पढे छात्र-छात्राएं आगे चल कर शिक्षक और समाज सेवक बने.
एक बार जब मैं पांचवी या छठवीं कक्षा में पढता था तो गर्मियों की छुट्टी में बनारस से नानी के पास जाने के लिए निकला. कलकत्ता से भुवनेश्वर तत्कालीन मुख्यमंत्री बीजु पटनायक के साथ उनके निजी हवाई जहाज से आया. हवाई यात्रा का मेरा यह पहला अनुभव था. बीजु पटनायक ने, जो खुद पायलट रह चुके थे, मुझे सह पायलट की सीट पर बैठाया और स्वयं पायलट की जगह ले ली और मुझे हवाई जहाज को ऊपर-नीचे, दाएं-बांए कैसे घूमाते हैं यह दिखाया.
भुवनेश्वर पहुंच कर मुझे अपने ड्राइवर के साथ न्यू मार्केट भेजा जहां से मुझे मेरी मन पसंद के दो खिलौने - एक चाबी से चलने वाला बन्दर और दूसरा बैटरी से चलने वाली खिलौने की पिस्तौल जिसमें से आवाज के साथ-साथ रंग बिरंगी रोशनी निकलती थी.
जब मैं नानी के आश्रम अनुगुल पहुंचा तो मेरे खिलौने देख कर वे गुस्से से आग बबूला हो गईं. "इतने रुपये से तो मेरे दो बच्चों के लिए महिने भर का खाना आ सकता है. तुम कैसे इतने मंहंगे खिलौने से खेल सकते हो?"
विरोध में नानी ने एक दिन खाना नहीं खाया. मैं बहुत गुस्सा हुआ और रोया. बाद में मुझे नानी के उस दिन के व्यवहार का मतलब समझ में आया और आदिवासी बच्चों के सामने मैं ने जो खिलौनों का गर्व के साथ प्रदर्शन किया था उस पर भारी शर्म महसूस हुई.
No comments:
Post a Comment