आठ साल तक मेरा बचपन ओडीशा और गुजरात के वेडछी गांव, बारडोली (जो उस समय गांव ही था) और वडोदरा में बीता.
कटक में जन्म हुआ इसलिए स्वाभाविक रूप से ओडीआ मेरी पहली भाषा बनी. दूसरी भाषा गुजराती. तीसरे दर्जे तक गुजराती माध्यम से पढ़ाई की. ओडीआ पढना बहुत बाद में सीखा (मेरी एक सखी मुझे ओडीआ में पत्र लिखा करती थी जिसे पढ़्ने के लिए मां के पास ओडीआ और हिन्दी की वर्णमाला लिखवा ली थी ) .
बचपन में भाषा को लेकर बहुत गड्ड-मड्ड होता था. हम जब गुजरात से ओडीशा जाते थे तो कुछ दिन लग जाते थे गुजराती भूल कर ओडीआ बोलने में. कई शब्द ओडीआ और गुजराती मिला कर बोलते थे. जिस कारण मेरे ओडीया मित्र हंसते थे. वैसा ही तब होता था जब हम गुजरात वापस आते थे. बीच में ओडीशा से कलकत्ता और शांतिनिकेतन भी जाना होता था. तब ओडिआ भूल कर बंग्ला बोलने लगते थे.
भुवनेश्वर में नाना के पास रहते थे तो मुख्यमंत्री के आवास में कार्यरत खानसामा, माली, ड्राइवर और पुलिस के सिपाहियों से ठेठ गांव की उडीआ में बात होती थी. इसलिए उडिया गालियां सीख लीं. गुजरात के वेडछी गांव में मेरे दोस्त वहां की आदिवासी भाषा चौधरी बोलते थे. चौधरी बोली में कई कहावतें और गीत सीखे थे, जो अब भूल गया हूं.
जब गांव छोड़ कर वडोदरा शहर आए तो स्कूल में बच्चे मेरा खूब मजाक उडाते थे क्यों कि मेरी भाषा और कपड़े-लत्ते देहाती थे. मेरी क्लास के लड़के लड़कियां चप्पल पहन कर आते थे. मुझे चप्पल पहनने की आदत नहीं थी. कई चप्पल खो दी. एक बार गांव से सीखी गाली बोलने पर शिक्षक से डांट भी खाई.
वडोदरा छोड़ कर हम १९६० में बनारस आ गए. वहां स्कूल में हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में पढाई होती थी. मुझे तो सिर्फ़ गुजराती आती थी. दो साल पीछे के क्लास में धकेल दिया गया. गर्मी की छुट्टियों में मां ने हिन्दी और अंग्रेजी पढाई. अगले साल एक साल आगे के क्लास में ले लिया गया. फिर भी एक साल का नुकसान हो ही गया.
मेरी स्कूल में अमीर घर के बच्चे पढ़ते थे. अच्छे कपड़े-जूते पहनते थे. हम खादी के कपड़े पहनते थे. हीन भावना हर समय कचोटती रहती थी. बहुत बाद में जब पढाई लिखाई में मेरे नम्बर अच्छे आने लगे तब जा कर मेरा स्वमान बढ़ा.
कटक में जन्म हुआ इसलिए स्वाभाविक रूप से ओडीआ मेरी पहली भाषा बनी. दूसरी भाषा गुजराती. तीसरे दर्जे तक गुजराती माध्यम से पढ़ाई की. ओडीआ पढना बहुत बाद में सीखा (मेरी एक सखी मुझे ओडीआ में पत्र लिखा करती थी जिसे पढ़्ने के लिए मां के पास ओडीआ और हिन्दी की वर्णमाला लिखवा ली थी ) .
बचपन में भाषा को लेकर बहुत गड्ड-मड्ड होता था. हम जब गुजरात से ओडीशा जाते थे तो कुछ दिन लग जाते थे गुजराती भूल कर ओडीआ बोलने में. कई शब्द ओडीआ और गुजराती मिला कर बोलते थे. जिस कारण मेरे ओडीया मित्र हंसते थे. वैसा ही तब होता था जब हम गुजरात वापस आते थे. बीच में ओडीशा से कलकत्ता और शांतिनिकेतन भी जाना होता था. तब ओडिआ भूल कर बंग्ला बोलने लगते थे.
भुवनेश्वर में नाना के पास रहते थे तो मुख्यमंत्री के आवास में कार्यरत खानसामा, माली, ड्राइवर और पुलिस के सिपाहियों से ठेठ गांव की उडीआ में बात होती थी. इसलिए उडिया गालियां सीख लीं. गुजरात के वेडछी गांव में मेरे दोस्त वहां की आदिवासी भाषा चौधरी बोलते थे. चौधरी बोली में कई कहावतें और गीत सीखे थे, जो अब भूल गया हूं.
जब गांव छोड़ कर वडोदरा शहर आए तो स्कूल में बच्चे मेरा खूब मजाक उडाते थे क्यों कि मेरी भाषा और कपड़े-लत्ते देहाती थे. मेरी क्लास के लड़के लड़कियां चप्पल पहन कर आते थे. मुझे चप्पल पहनने की आदत नहीं थी. कई चप्पल खो दी. एक बार गांव से सीखी गाली बोलने पर शिक्षक से डांट भी खाई.
वडोदरा छोड़ कर हम १९६० में बनारस आ गए. वहां स्कूल में हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में पढाई होती थी. मुझे तो सिर्फ़ गुजराती आती थी. दो साल पीछे के क्लास में धकेल दिया गया. गर्मी की छुट्टियों में मां ने हिन्दी और अंग्रेजी पढाई. अगले साल एक साल आगे के क्लास में ले लिया गया. फिर भी एक साल का नुकसान हो ही गया.
मेरी स्कूल में अमीर घर के बच्चे पढ़ते थे. अच्छे कपड़े-जूते पहनते थे. हम खादी के कपड़े पहनते थे. हीन भावना हर समय कचोटती रहती थी. बहुत बाद में जब पढाई लिखाई में मेरे नम्बर अच्छे आने लगे तब जा कर मेरा स्वमान बढ़ा.
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